rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

Authorrehmat

ज़ार ज़ार रो भी लेते, थोड़ा सुधर भी जाते.

ज़ार ज़ार रो भी लेते, थोड़ा सुधर भी जाते.
हम तुझसे दूर हो भी जाते तो किधर जाते.
ज़रा आँख लग भी जाती तो फिर होश में आते.
ग़र ठीक से सो भी जाते तो मर जाते.
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कोई नहीं आया साखी ग़म ए तन्हाई के साये में.
एक आवाज़ भी लगती तो हम ठहर जाते.
आईना भी जो दिखता तो पूछ ही लेता था तबीयत.
हम मुस्कुराते भी जाते थे और मुकर जाते.
परिंदों को ही सही मगर दर्द मालूम तो हुआ शायद.
गाँव या शहर, चले आते हम जिधर जाते.
सब रिश्तेदार और दोस्त रहते हैं जन्नत में रफ़त.
मालूम होगा ख़ुदा को कोई कैसे हमारे घर आते.
– रहमत (जुलाहा)

किसी के मुँह में कड़वी रोटी, किसी के मुँह में फ़ातिहा का बताशा देखेंगे.

किसी के मुँह में कड़वी रोटी, किसी के मुँह में फ़ातिहा का बताशा देखेंगे.
रहमत, हम जाते जाते भी अदाकारों का तमाशा देखेंगे.
– रहमत (जुलाहा)

मैं वो चराग़ हूँ जिसे जला कर घर रोशन हुआ.

मैं वो चराग़ हूँ जिसे जला कर घर रोशन हुआ.
ज़रूरत नहीं तो अब बुझाने में लगे हैं मेरे सारे अपने.
या इलाही! सब तूफ़ान चले गए मुझे देख कर यूँ ही.
अभी तेरी रहमत का झोंका देखा कहाँ है सबने.
– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)