कितने आ’मालों से सबके सब घड़े भर गए.
जी हुज़ूरी शुक्रिया अदब आदाब सब सबके सर गए.
बेशर्म बेमुरव्वत बेग़ैरत बेतहाशा शौक़ से जीने लगे.
जल भुन कर देखते रहे शामियाने फिर हैरत से मर गए.
बुरे काम हर दफ़ा मुझे ही क्यूँ करने पड़े.
अब खिंच गयी केंचुलियाँ तो साँप आईनों से डर गए.
ज़िक्र ए अर्बाब ए सुख़न में भी ख़ुदा ने तुझे रहमत रक्खा.
आ मिली वो बवंडर थमते ही और हम भी अपने घर गए.
लगे रहे सब दौलत ओ वसीयत जोड़ने में इस क़दर.
इज़्ज़त देख रफ़त कि हम भी लिख लिख कर जमा कर गए.
– रहमत (जुलाहा)
मौजों में एक नाव को डुबोने की आरज़ू बँट रही है.
मौजों में एक नाव को डुबोने की आरज़ू बँट रही है.
कि एक क़तरे से समंदर की आबरू घट रही है.
अब तो किनारे भी बहुत दूर बह गए रहमत.
ज़िंदगी लश्कर ए दुश्मनाँ के रू-ब-रू कट रही है.
रिश्ते इतनी शिद्दत से निभाते रहें हैं अपने.
सबके साफ़ चेहरों से बरसों जमी धूल हट रही है.
छोड़ने को तो छोड़ देता मैं बेमतलब दुनिया.
फ़ालतू एक मैना खिड़की में मेरा नाम रट रही है.
हक़ीक़ी मिलें निशानियाँ तो सब्र नहीं खोते.
क़िस्मत बेवफ़ा है कि कौन जाने कल मुझसे पट रही है.
– रहमत (जुलाहा)
टूटे हैं सारे ख़्वाब अब वो परवाज़ ज़बर नहीं आयेगा.
टूटे हैं सारे ख़्वाब अब वो परवाज़ ज़बर नहीं आयेगा.
दब कर दोज़ ए ज़िम्मा ए नाज़ कहीं ख़बर नहीं आएगा.
कबूतरों से कह दो कि आज से हौसले बलंद रख लें रहमत.
आज से बस्ती में वो ग़ैज़ ओ ग़ज़ब ए बाज़ नज़र नहीं आयेगा.
– रहमत (जुलाहा)
रहमत यूँ ही नहीं उठ कर जाया करते.
रहमत यूँ ही नहीं उठ कर जाया करते.
मिली है नज़र, वो दीदार कर रहा है.
– रहमत (जुलाहा)
दिल में ना कोई फ़ितूर, मेरे मन में कोई कपट नहीं रखता.
दिल में ना कोई फ़ितूर, मेरे मन में कोई कपट नहीं रखता.
मैं तेरे जैसा नहीं हूँ, ज़रा भी लाग लपट नहीं रखता.
बाअदब झुक कर करूँ सलाम या रखूँ मुँह पर सीधा चमाट.
चाट चाट कर अपनी ज़बाँ, झट-पट गट-पट नहीं रखता.
देता हूँ वक़्त कि दूर से ही सही कोई आवाज़ तो दे.
शाम तक भी नज़र ना आए मैं वो मौज ओ सैर सपट नहीं रखता.
– रहमत (जुलाहा)
सज्दों में रो रो कर आपकी ज़िंदगी फ़िक्र ओ फ़ाक़ों में कट गयी.
सज्दों में रो रो कर आपकी ज़िंदगी फ़िक्र ओ फ़ाक़ों में कट गयी.
सलाम कैसे करूँ उस उम्मत को जो फ़ितने ओ फ़िरक़ों में बँट गयी.
कोई शिया हुआ, कोई सुन्नी हो गया, कोई वहाबी हुआ, कोई जमाती हो गया.
सब अपने अपने हिसाब से ‘आलिम हो गये, बेख़बर क़ौम तबक़ों में छँट गयी.
समझ गया है रहमत अब कि क्यूँ कहा करते थे वो इंशा-पर्दाज़.
मुसलमाँ इबादतों में मसरूफ़ हो गया और मिसाल ए ज़बाँ औरों को रट गयी.
– रहमत (जुलाहा)
दो घड़ी बैठे किसी शाम ए गुफ़्तगू में तो वहाँ भी हैसियतदार आ जाए.
दो घड़ी बैठे किसी शाम ए गुफ़्तगू में तो वहाँ भी हैसियतदार आ जाए.
ऊँचे ऊँचे महलों से क्या लेना सलाहियत हो कर ख़्वार आ जाए.
ख़ुदा के माल को अपना समझ सब साहिब ए निसाब बन बैठे.
समेट कर मुहब्बत चल दिया मायूस हो कर घर खुद्दार आ जाए.
– रहमत (जुलाहा)
कोई शौक़ ए जाहिल ग़र बातिल हो, फिर वो किसी शय का क़ाइल नहीं.
कोई शौक़ ए जाहिल ग़र बातिल हो, फिर वो किसी शय का क़ाइल नहीं.
जो मतलब की हवा में ग़ाफ़िल रहे उनसे ना मिल, तू उनमें शामिल नहीं.
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“इतना भी तू बुरा कहाँ, इतना भी तू नफ़रत के क़ाबिल नहीं.
बस किसी का वुजूद बेकार हुआ, बस किसी को तू हासिल नहीं.”
रियाकारों के लिए बिछते हैं ग़लीचे, तू किसी आईना ए ताब का क़ातिल नहीं.
अकेला भी हो तो क्या हुआ मोमिन, बात तेरे यक़ीन पर आ ठहरी.
ईमान बिना दुनिया फ़ना, तेरे सज्दों के बिना ये ज़मीन कामिल नहीं.
– रहमत (जुलाहा)
जब अल्लाह तेरा क़द बढ़ाने का इरादा करे.
जब अल्लाह तेरा क़द बढ़ाने का इरादा करे.
ख़ुशियाँ थोड़ी कम, थोड़े ग़म ज़्यादा करे.
मुश्किलें भी दे, बस कभी गिरने ना दे कहीं.
तू मेहनत किए जा, वो सब कुछ फिर देने का वादा करे.
तेरा ग़फ़ूरुर्रहीम बड़ी हिकमत वाला है बंदे.
क्यूँ तू ख़्वाह-मख़्वाह लोगों की बातें दिल पे लादा करे.
– रहमत (जुलाहा)
बार बार मेरा दम निकले या तुझमें आग लगे.
बार बार मेरा दम निकले या तुझमें आग लगे.
जल जल उठे वो शोले जो हर दफ़ा राख़ लगे.
– रहमत (जुलाहा)