rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

Authorrehmat

इतना ज़्यादा दर्द बनकर छलकते ही नहीं आँसू.

इतना ज़्यादा दर्द बनकर छलकते ही नहीं आँसू.
मेरी ज़िंदगी फ़रेबियों की महफ़िलों का जाम नहीं होती.
एक तो मेरा दिल साया बनकर तेरे नाम नहीं होता.
जो एक तू मेरे होटों पर रटा नाम नहीं होती.
तेरे हामी छुप छुप कर ख़ंजर ना घोंपते ग़र पीठ पर.
यूँ ही मौत मेरी हर चौराहा सरे आम नहीं होती.
शर्म से ग़र्क़ हो जाएँ मेरे दुश्मन मिट्टी में ज़मीन-दोज़ हो कर.
बदनाम होते हैं जिनके जवाई, उनकी बेटियाँ गुमनाम नहीं होती.
जो बदलते हैं लिबास ऊपर से अच्छा दिखने को हर रोज़.
उन पर झूठ और मक्कारी की रिवायत हराम नहीं होती.
सदा उनको भी है जो हवा के साथ बदलते रहे हैं तवाज़ुन अपना.
कितनी भी वफ़ा करे कोई, दौलत बिना यहाँ इज़्ज़त नेक-नाम नहीं होती.

– रहमत (जुलाहा)

अरमानों से सज कर हर दग़ाबाज़, ग़ैरों की उतरन पा गया.

अरमानों से सज कर हर दग़ाबाज़, ग़ैरों की उतरन पा गया.
‘रहमत’ बुरा वक़्त दोस्तों के सिवा, तेरे सारे दुश्मन खा गया.
– रहमत (जुलाहा)

आ रहा है तुझपे यूँ ही प्यार बादस्तूर.

आ रहा है तुझपे यूँ ही प्यार बादस्तूर.
फूल से चेहरे पर निखर रहा कितना प्यारा नूर.
छोटी सी नाक चढ़े ऊपर नीचे कि बेवजह ग़ज़ब करे.
होते रहें ज़ुल्म हम ही पर, और हम ही कहते रहें, चश्म ए बद दूर.
– रहमत (जुलाहा)

मुझे ये जो मेरे दिल का ‘अलहदा सा दर्द लगता है.

मुझे ये जो मेरे दिल का ‘अलहदा सा दर्द लगता है.
मेरे दुश्मनों की हसरतों का बहुत ज़रूरी फ़र्द लगता है.
ओढ़ कर ढिठाई से घूमते हैं वो बेच कर अपनी अपनी शर्म.
किसी के सुकून को थोड़ा नर्म किसी के खून को थोड़ा सर्द लगता है.
होता ही रहा ग़ैरों से मुख़ातिब हो कर मुझसे अजनबी.
मुझे तो तू भी मेरे हमदम बड़ा ही बेदर्द लगता है.
फिर भी कहता हूँ हर बात मुँह पर सबके सामने.
रहमत बस तू ही क्यूँ इस बस्ती में मुझे मर्द लगता है.
लेकर घूम रहा है इतने सारे दग़ा ओ फ़रेब कि अब सोने भी नहीं देते.
कोई ज़ख़्म अभी भी है हरा कोई ज़ख़्म ज़रा सा ज़र्द लगता है.

– रहमत (जुलाहा)

वो आकर बैठी है पास मेरे, कोई इधर नहीं आना, चले जाना.

वो आकर बैठी है पास मेरे, कोई इधर नहीं आना, चले जाना.
वो तुम्हें दिखे या ना दिखे, मत देखना, मत दिखना, चले जाना.
क्या मालूम उसका दिल मुझसे कब भरेगा, वो कब जाएगी.
सबसे कहना दीवाना हो गया हूँ, मुझे पागल बताना, चले जाना.
– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)