rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

Authorrehmat

ग़र ना रहा तेरा कोई दुश्मन, क्या ख़ाक तेरी मिसाल हो.

ग़र ना रहा तेरा कोई दुश्मन, क्या ख़ाक तेरी मिसाल हो.
ना धूजा किसी का कलेजा, क्या तेरी ताक़त में जलाल हो.
कह ना पाया कोई भी बुरा, तो कहाँ तूने कुछ कमाल किया.
ना उठा सका कोई फ़ायदा, क्या रही क़ीमत, कहाँ तू हलाल हो.
– रहमत (जुलाहा)

ज़माने से मुँह फेरा, और अहम ख़त्म.

ज़माने से मुँह फेरा, और अहम ख़त्म.
लुटा कर आबरू, ख़ुद पर रहम ख़त्म.
तीन गोली सुबह, तीन गोली शाम को.
दिमाग़ चलना शुरू, और वहम ख़त्म.
– रहमत (जुलाहा)

थोड़े सपने लिए, आँखों में कितने अरमान लिए…

थोड़े सपने लिए, आँखों में कितने अरमान लिए…
आई थी खोखले घर में जिसे उफ़ “ऊँचा घराना” आदतन कहते हैं.
कभी ख़ुशियाँ ठहरने ना दीं उसके आँगन में, जो दिखा पड़ौसी पड़ौसन कहते हैं.
एक कौने में पटक कर भी सुकून ना मिला अहल ए खानदान के रखवालों को.
ये भी हमारा वो भी हमारा, सताने को सब इरादतन कहते हैं.
थोड़े काले और गरीब रहे ना उसके बच्चे इसलिए किसी को भी ना भाए.
अब दुआओं का सिला मिला तो ग़ुबार ए हक़ को पागलपन कहते हैं.
देखो आज भी हिम्मत ना हारी वो और इंशाअल्लाह ना हारेगी.
तूफ़ानों में अब भी डट कर खड़ी है, मेरी माँ को अब भी सईदन कहते हैं.
– रहमत (जुलाहा)

दिन रात ख़ुद को तोड़ कर क्या कुछ ना कमाया मैंने.

दिन रात ख़ुद को तोड़ कर क्या कुछ ना कमाया मैंने.
तिनका तिनका जोड़ कर एक छोटा सा घर बनाया मैंने.
एक दिन एक बदबख़्त मेरी पेशानी पर अपना नाम लिखने चला आया.
एक बार फिर एक शैतान से अपना सर बचाया मैंने.
– रहमत (जुलाहा)

हर शख़्स अपने “मुँह बोले” फ़रिश्तों से मेरे अज़ाब पूछता है.

हर शख़्स अपने “मुँह बोले” फ़रिश्तों से मेरे अज़ाब पूछता है.
बता कर मुझे मुजरिम निय्यत ए सवाब, मेरे जवाब पूछता है.
हर घड़ी हर शाम अपनी लज़्ज़त ए ज़बाँ पूरी करने चकोर की तरह.
म’आज़-अल्लाह वो कितने तल्ख़ लफ़्ज़ों से मेरे मुकम्मल ख़्वाब पूछता है.
या अल्लाह वो तेरे अता किए हुए नायाब तोहफ़ों का हिसाब पूछता है.
– रहमत (जुलाहा)

चारों तरफ़ महफ़िलों में कुछ मक्कारों का हुजूम था.

चारों तरफ़ महफ़िलों में कुछ मक्कारों का हुजूम था.
बंदा तू बड़ा नेक और साफ़ है कि इस बात से कौन महरूम था.
दिखा कर अपना अपना हाल ए इल्म अपनों ने ऐसा ग़ाफ़िल किया.
अल्लाह का शुक्र है तुझे क़िबला ए इबादत का रुख़ मालूम था.
– रहमत (जुलाहा)

उसमें ना हसद, ना ग़ुरूर, ना माल की हड़प, ना दोस्तों के लिए दग़ा हो.

उसमें ना हसद, ना ग़ुरूर, ना माल की हड़प, ना दोस्तों के लिए दग़ा हो.
मेरे रब के सिवा कौन जाने कहाँ मोमिन का मन लगा हो.
महफ़ूज़ रहे वो हर बला से कि हर बार यूँ ही बेफ़िक्र रह जाए.
दुआएँ कम नहीं होतीं उसके लिए जो अपनों का सगा हो.
– रहमत (जुलाहा)
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जो पल्ला झाड़ हर ग़ैरत से तू मतलब हल करने में लगा हो.
ये दौलत, वो रिश्ते, ये दावत, उसको छोड़ना सवाब, इसको मनाना सवाब.
सिर्फ़ मायूसी है उसके लिए जो हर ज़िम्मेदारी से भगा हो.

rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी
Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)