हर किसी की बात पे, टूटा करूँ मैं कितने टुकड़े.
एक ही तो दिल है, कहाँ से लाऊँ इतने टुकड़े.
किस के लिए अच्छा बनूँ, किस को रिझाऊँ मैं.
इतनी नज़रें हैं बस्ती में, चेहरे के बनाऊँ कितने टुकड़े.
कोई जाने आधी बात, कोई जाने आधा किस्सा.
ख़ुद में एक अहसास नहीं, मुझे सिखाएँ इतने टुकड़े.
हर शख़्स की मर्ज़ी पे चलूँ, तो मैं क्या होऊँ.
एक वजूद के मेरे, कर के दिखाऊँ कितने टुकड़े.
– रहमत (जुलाहा)
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