निर्मल पंछी छड़ काग भए, रहमत कागा रहा ना कोय.
गिद्ध तरतीब लग डागला, चमड़ी नौंच खौंच के सोय.
– रहमत (जुलाहा)
निर्मल पंछी छड़ काग भए, रहमत कागा रहा ना कोय.
गिद्ध तरतीब लग डागला, चमड़ी नौंच खौंच के सोय.
– रहमत (जुलाहा)
तेरी आँखों के समंदर में कुछ इस तरह गुम हो जाऊँ.
मैं लगा कर तकिया हशर तलक वहीं सो जाऊँ.
खो जा तू भी मुझमें कि अब होश में नहीं आना मुझे.
लिखता रहूँ शायरी और तुझमें कहीं खो जाऊँ.
शायर तो बन चुका हूँ रहमत अब कोई मिसरा तो दे.
लिखूँ तेरी दिलकश सूरत और लफ़्ज़ों में पिरो जाऊँ.
समेट कर होटों से तुझ पर गिरते उठते कुदरत के सौ रंग.
बना दूँ अल्फ़ाज़ों से तेरी तस्वीर और फ़नकार हो जाऊँ.
– रहमत (जुलाहा)
मेरे साथ रह कर हर घड़ी.
पल पल घड़ी घड़ी सताए जा रही थी.
घड़ी खोल कर रख दी मैंने.
सबकी औक़ात बताए जा रही थी.
– रहमत (जुलाहा)
दुनिया को मुल्क ओ गैर-मुल्क की लकीरों में बाँट लिया.
जो कम लगा तो मज़हब की जागीरों में बाँट लिया.
आज़ाद रहने ही कहाँ दिया ख़ुदा की ज़मीन को रहगुज़र.
जितना जितना बेहतर लगा सबने उतना उतना छाँट लिया.
– रहमत (जुलाहा)
तेरी आँखों के समंदर में कुछ इस तरह गुम हो जाऊँ.
मैं लगा कर तकिया हशर तलक वहीं सो जाऊँ.
खो जा तू भी मुझमें कि अब होश में नहीं आना मुझे.
लिखता रहूँ शायरी और तुझमें कहीं खो जाऊँ.
शायर तो बन चुका हूँ रहमत अब कोई मिसरा तो दे.
लिखूँ तेरी दिलकश सूरत और लफ़्ज़ों में पिरो जाऊँ.
समेट कर होटों से तुझ पर गिरते उठते कुदरत के सौ रंग.
बना दूँ अल्फ़ाज़ों से तेरी तस्वीर और फ़नकार हो जाऊँ.
– रहमत (जुलाहा)
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तेरे दीद का शौक़ यूँ हुआ कि कोई और निगाह ए दीद ना रहा.
मना लिया तुझको ही ईद कि कोई और मौक़ा ए ईद ना रहा.
– रहमत (जुलाहा)
ना लेती हो तुम जान बस एक मुलाक़ात में.
शब के हर पहर ख़यालों में मक़ाम करती हो.
सुबह को देती हो फिर वफ़ाओं का मरहम.
शाम फिर निगहों से क़त्ल ए आम करती हो.
– रहमत (जुलाहा)
जो ज़िंदगियाँ तबाह करने में शरीक रहते हैं.
ऐसे हुनरमंद लोगों को हम शरीफ़ कहते हैं.
– रहमत (जुलाहा)
ख़ुशबू ख़ुशी ख्वाहिश ख़याल ख़्वाब भी है.
मेरी रूह में तेरा उतर जाना एक सवाब भी है.
– रहमत (जुलाहा)