दौलत को ‘सलाम’ करता रहा एक ‘हकीम’ का ‘वसीम घर’.
रहमत दवाएँ ख़ुद बीमार हो कर सुपुर्द ए ख़ाक होती रहीं.
– रहमत (जुलाहा)
‘वसीम’ – ख़ूबसूरती में अव्वल
दौलत को ‘सलाम’ करता रहा एक ‘हकीम’ का ‘वसीम घर’.
रहमत दवाएँ ख़ुद बीमार हो कर सुपुर्द ए ख़ाक होती रहीं.
– रहमत (जुलाहा)
‘वसीम’ – ख़ूबसूरती में अव्वल
रहमत जहन्नम कितनी बुरी जगह है इस बात से मालूम हुआ.
फ़िरक़ा परस्तों को सब पे चढ़ कर जन्नत में जाना है.
– रहमत (जुलाहा)
हुआ करते हैं सच्चे पागल जो लोग जुलाहा.
लगा कर ख़ुद को आग रोशनी किया करते हैं.
– रहमत (जुलाहा)
बताते हैं कि उन्होंने भी देखी है गलियों से बाहर की दुनिया.
वो हर दफ़ा अपना फ़ीता लेकर निकलते हैं मेरी औक़ात नापने.
– रहमत (जुलाहा)
चेहरे पर चश्मा और हाथों में बंदूक़, ये क्या ‘अज़ाब है.
हम तो उसकी निगाहों से रहमत मरे बैठे हैं.
– रहमत (जुलाहा)
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तू कब तक पियेगा कि क्या क्या लिखें.
हम तो जाम ए इश्क़ दिल में साखी भरे बैठे हैं.
एक उसकी सूरत है कि हमसे सँभलती ही नहीं.
यूँ तो निगाहों से हम भी कितने क़त्ल करे बैठे हैं.
जाएज़ है उसका नख़रा वो ऐसे ही हमें दिल नहीं देगा.
हैं सब मजनू बेवफ़ा जिनमें एक हम ही खरे बैठे हैं.
– रहमत (जुलाहा)
बेवजह ख़ुदा इस क़द्र इम्तिहान नहीं लेता.
अच्छों से दुनिया लेता है जन्नत सजाने के लिए.
– रहमत (जुलाहा)
मेहनत कर के हासिल की है इन आँखों में ग़ैरत.
औक़ात समझते हैं जिसे मैं ऐसी हम्मियत में नहीं.
बिकता होगा टुकड़ों में यहाँ वहाँ टूटा फूटा ज़मीर.
दाग़ ए दग़ा मेरी परवरिश ओ तरबियत में नहीं.
– रहमत (जुलाहा)
इतना ही मालूम था इश्क़ में बर्बाद हो जाते हैं लेकिन.
जाने कब ख़ुद फ़ना हुए और आईनों में मुस्कुराने लगे.
मुहब्बत ना करे कोई बड़ी अजीब कैफ़ियत है.
ऐसे हुए उसके कि ख़ुद को याद आने लगे.
मुझे ही बताता रहता है कि तूने वफ़ा नहीं की.
उसे मेरी क़समें और वादे सब अफ़साने लगे.
तड़प उठता हूँ दीदार को कि वो ग़लत हो नहीं सकता.
सनम तुम मुझमें से निकल कर क्यूँ मुँह बनाने लगे.
कहते हैं कि वो जी ही नहीं पाए जो बीमार हुए.
हमें तो रहमत तिल तिल कर मरने में भी शायद ज़माने लगे.
– रहमत (जुलाहा)
फिर भी तेरे इश्क़ में हर बार धोका खाया हमने.
वहम होता रहा बार बार शिद्दत से निभाया हमने.
– रहमत (जुलाहा)
हमने सुन रखा था सुकून की नींद आती है तो लिखने लगे मगर.
रहमत कलम ख़ुद बेचैन हो जाती है रात भर जागने के लिए.
– रहमत (जुलाहा)