ज़रा ही तबीयत ठीक होगी, बाक़ी बहकता फ़ितूर है.
तेरे हिज्र में जो लिख दी मैंने, ये वो नज़्म ए सुरूर है.
समेटता हूँ तेरे चेहरे से लिहाफ़, जी भर कर देखने के लिए.
नूर ए महताब हैं आँखें, जाँ ए दिल तेरे नशे में चूर है.
कभी रुक जाते हैं लम्हे, कभी तेज़ तेज़ चलती है धड़कन.
जन्नत सी लगती है, देखो परी है कोई या हूर है.
जैसे देखता हूँ मैं तुझे, वैसे किसी को नहीं देखता.
बहता है जो नस नस में मेरी, तेरी मुहब्बत का ग़ुरूर है.
किस अदा की कितनी करूँ तारीफ़, कि कुछ कम ना रह जाए.
ख़ुद आईना भी शर्माए तुझसे, फिर मुझे क्या शु’ऊर है.
ख़ैर ये कि ख़ता तू करे और इल्ज़ाम हर बार मुझ पर आए.
तू मुस्कुरा के दे या गुस्से में दे सज़ा, सर-आँखों से मंज़ूर है. – रहमत (जुलाहा)
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