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रहमत (जुलाहा) की शायरी

शायरी

दो शे’र मेरी एक नज़्म से. ज़िक्र ए अर्बाब ए सुख़न में भी ख़ुदा ने तुझे रहमत रक्खा.

दो शे’र मेरी एक नज़्म से.
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ज़िक्र ए अर्बाब ए सुख़न में भी ख़ुदा ने तुझे रहमत रक्खा.
आ मिली वो बवंडर थमते ही और हम भी अपने घर गए.
लगे रहे सब दौलत ओ वसीयत जोड़ने में इस क़दर.
इज़्ज़त देख रफ़त कि हम भी लिख लिख कर जमा कर गए.
– रहमत (जुलाहा)

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एक शे’र मेरी नज़्म से. तड़प उठता हूँ दीदार को कि तू ग़लत हो नहीं सकता.

एक शे’र मेरी नज़्म से.
तड़प उठता हूँ दीदार को कि तू ग़लत हो
नहीं सकता.
सनम तुम मुझमें से निकल कर क्यूँ मुँह बनाने लगे.
– रहमत (जुलाहा)

#shayari #love #friendship #beautiful #julaha #dil #jaan

एक शे’र मेरी नज़्म से. तड़प उठता हूँ दीदार को कि तू ग़लत हो नहीं सकता.

एक शे’र मेरी नज़्म से.
तड़प उठता हूँ दीदार को कि तू ग़लत हो
नहीं सकता.
सनम तुम मुझमें से निकल कर क्यूँ मुँह बनाने लगे.
– रहमत (जुलाहा)

#shayari #love #friendship #beautiful #julaha #dil #jaan

दो शेर मेरी एक नज़्म से. समेटता हूँ तेरे चेहरे से लिहाफ़, जी भर कर देखने के लिए.

दो शेर मेरी एक नज़्म से.
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समेटता हूँ तेरे चेहरे से लिहाफ़, जी भर कर देखने के लिए.
नूर ए महताब हैं आँखें, जाँ ए दिल तेरे नशे में चूर है.
कभी रुक जाते हैं लम्हे, कभी तेज़ तेज़ चलती है धड़कन.
जन्नत सी लगती है, देखो परी है कोई या हूर है.
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– रहमत (जुलाहा)

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एक शोख़ नज़र काफ़ी है दिल चीर डालने के लिए.

एक शोख़ नज़र काफ़ी है दिल चीर डालने के लिए.
तुम सितमगर हो चले हो लबों से मरहम लगा कर.
नज़ाकत से नाम लेते हो होश में लाने के लिए.
जान लेने चले हो ‘मेरी जान’ मुझे सनम बता कर.
– रहमत (जुलाहा)

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मुक़म्मल हैं इसलिए लोगों ने किये इंतिज़ाम इतने हैं.

मुक़म्मल हैं इसलिए लोगों ने किये इंतिज़ाम इतने हैं.
आगे आगे देखिये कि हम पर लगने इल्ज़ाम कितने हैं.
– रहमत (जुलाहा)

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ज़रा ही तबीयत ठीक होगी, बाक़ी बहकता फ़ितूर है.

ज़रा ही तबीयत ठीक होगी, बाक़ी बहकता फ़ितूर है.
तेरे हिज्र में जो लिख दी मैंने, ये वो नज़्म ए सुरूर है.
समेटता हूँ तेरे चेहरे से लिहाफ़, जी भर कर देखने के लिए.
नूर ए महताब हैं आँखें, जाँ ए दिल तेरे नशे में चूर है.
कभी रुक जाते हैं लम्हे, कभी तेज़ तेज़ चलती है धड़कन.
जन्नत सी लगती है, देखो परी है कोई या हूर है.
जैसे देखता हूँ मैं तुझे, वैसे किसी को नहीं देखता.
बहता है जो नस नस में मेरी, तेरी मुहब्बत का ग़ुरूर है.
किस अदा की कितनी करूँ तारीफ़, कि कुछ कम ना रह जाए.
ख़ुद आईना भी शर्माए तुझसे, फिर मुझे क्या शु’ऊर है.
ख़ैर ये कि ख़ता तू करे और इल्ज़ाम हर बार मुझ पर आए.
तू मुस्कुरा के दे या गुस्से में दे सज़ा, सर-आँखों से मंज़ूर है. – रहमत (जुलाहा)

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rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी
Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)