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रहमत (जुलाहा) की शायरी

शायरी

दौलत को ‘सलाम’ करता रहा एक ‘हकीम’ का ‘वसीम घर’.

दौलत को ‘सलाम’ करता रहा एक ‘हकीम’ का ‘वसीम घर’.
रहमत दवाएँ ख़ुद बीमार हो कर सुपुर्द ए ख़ाक होती रहीं.

– रहमत (जुलाहा)

‘वसीम’ – ख़ूबसूरती में अव्वल

बताते हैं कि उन्होंने भी देखी है गलियों से बाहर की दुनिया.

बताते हैं कि उन्होंने भी देखी है गलियों से बाहर की दुनिया.
वो हर दफ़ा अपना फ़ीता लेकर निकलते हैं मेरी औक़ात नापने.
– रहमत (जुलाहा)

चेहरे पर चश्मा और हाथों में बंदूक़, ये क्या ‘अज़ाब है.

चेहरे पर चश्मा और हाथों में बंदूक़, ये क्या ‘अज़ाब है.
हम तो उसकी निगाहों से रहमत मरे बैठे हैं.
– रहमत (जुलाहा)
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तू कब तक पियेगा कि क्या क्या लिखें.
हम तो जाम ए इश्क़ दिल में साखी भरे बैठे हैं.
एक उसकी सूरत है कि हमसे सँभलती ही नहीं.
यूँ तो निगाहों से हम भी कितने क़त्ल करे बैठे हैं.
जाएज़ है उसका नख़रा वो ऐसे ही हमें दिल नहीं देगा.
हैं सब मजनू बेवफ़ा जिनमें एक हम ही खरे बैठे हैं.

– रहमत (जुलाहा)

मेहनत कर के हासिल की है इन आँखों में ग़ैरत.

मेहनत कर के हासिल की है इन आँखों में ग़ैरत.
औक़ात समझते हैं जिसे मैं ऐसी हम्मियत में नहीं.
बिकता होगा टुकड़ों में यहाँ वहाँ टूटा फूटा ज़मीर.
दाग़ ए दग़ा मेरी परवरिश ओ तरबियत में नहीं.
– रहमत (जुलाहा)

इतना ही मालूम था इश्क़ में बर्बाद हो जाते हैं लेकिन.

इतना ही मालूम था इश्क़ में बर्बाद हो जाते हैं लेकिन.
जाने कब ख़ुद फ़ना हुए और आईनों में मुस्कुराने लगे.
मुहब्बत ना करे कोई बड़ी अजीब कैफ़ियत है.
ऐसे हुए उसके कि ख़ुद को याद आने लगे.
मुझे ही बताता रहता है कि तूने वफ़ा नहीं की.
उसे मेरी क़समें और वादे सब अफ़साने लगे.
तड़प उठता हूँ दीदार को कि वो ग़लत हो नहीं सकता.
सनम तुम मुझमें से निकल कर क्यूँ मुँह बनाने लगे.
कहते हैं कि वो जी ही नहीं पाए जो बीमार हुए.
हमें तो रहमत तिल तिल कर मरने में भी शायद ज़माने लगे.
– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)