वाह दोगली दुनिया, अजब तेरा दस्तूर.
अच्छा अच्छा तेरा, बुरा मेरा फ़ितूर.
– रहमत (जुलाहा)
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वाह दोगली दुनिया, अजब तेरा दस्तूर.
अच्छा अच्छा तेरा, बुरा मेरा फ़ितूर.
– रहमत (जुलाहा)
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दिल मक़ाम-ए-आरज़ू बरबाद.
इश्क़ रस्म-ए-जुस्तजू बरबाद.
शम्स मग़रिब नूर मशरिक़.
माह रस्म-ए-आबरू बरबाद.
बज़्म साक़ी मै क़दह ख़ाली.
जाम सरनमू मजनूँ बरबाद.
ज़ुल्फ़ शब रुख़्सार माहताब.
हुस्न मशहूर गुफ़्तगू बरबाद.
दर्द पैहम ज़ख़्म नासूर.
‘रफ़त’ जाँ-ए-सुर्ख़-रू बरबाद.
– रहमत (जुलाहा)
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माथे पर बोसा देकर छूटे ही थे मेरी जान.
आज फिर तेरी नथ के नीचे आकर अटक गए.
– रहमत (जुलाहा)
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वो जो सोचते हैं कि हमारी हार की सहर देखेंगे.
हम जब जीतेंगे तो उनकी नज़रों में ज़हर देखेंगे.
हैं ही नहीं किसी की हौसला-अफ़ज़ाई के क़ाइल.
हम मुस्कुराएँगे और उनकी आँखों में क़हर देखेंगे.
– रहमत (जुलाहा)
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कभी तो मिलना था हमें, इस तरह मिले हैं अब.
न तुम अपने रह गए हो, न हम अपने रह गए हैं.
– रहमत (जुलाहा)
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ना बरकत रहे फ़ज़्र की, ना सब्र रहे काम पर.
ना दिन में जगे उल्लू, ना चमगादड़ सोए रात भर.
– रहमत (जुलाहा)
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शब सी ज़ुल्फ़ों में तेरी, छिपा है माह ए ताबाँ.
तू नूर ए महफ़िल, हर शम्स का काशाना है.
इस क़दर हुस्न है के, दीद भी मुमकिन नहीं.
आँख झुकती है ज़ालिम मगर, दिल अभी दीवाना है.
– रहमत (जुलाहा)
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फूलों की ज़िंदगी भी, कैसी है बे-सबात.
सुबह को खिल के शाम को, मुरझाए से हो गए.
जवानी की बहार भी, अब ढल चली है यार.
हम भी बेजाँ चमन की तरह, बिखराए से हो गए.
– रहमत (जुलाहा)
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ये जहाँ क्या है मगर, क्या जनाब आख़िर है.
हर ख़ुशी क्या है मगर, एक अज़ाब आख़िर है.
दिल लगाया है किसी से तो ये जान लीजिए.
हर मोहब्बत की कहानी, इज़्तराब आख़िर है.
जो भी पाया है वो खोना भी मुक़द्दर में है.
हर मिलन का ये नतीजा, ख़राब आख़िर है.
हम समझते थे कि मंज़िल कोई तो आसाँ होगी.
हर क़दम पर ये मगर, पेच ओ ताब आख़िर है.
आप कहते हैं कि दुनिया में वफ़ा ढूँढ रहे हैं हम.
बेवफ़ाई का ये क़िस्सा, बे-हिसाब आख़िर है.
रात भर नींद नहीं आती है आँखों में मगर.
सुबह होते ही ये सारा, ख़्वाब आख़िर है.
कोई पूछे तो कहें क्या है ये दुनिया ए फ़ानी.
ज़िंदगी एक सवाल ओ जवाब आख़िर है.
हम तो समझे थे कि मंज़िल है कोई राह में.
हर सफ़र बस ये मसीर ए शबाब आख़िर है.
कितनी मेहनत से बनाया था ये आशियाँ अपना.
आज देखा तो ये सब एक नक़्श ए आब आख़िर है. – रहमत (जुलाहा)
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तेरी हर बात में दोस्त इतनी मिठास क्यों है.
मैं कड़वा हूँ मगर तुझे मेरी ही तलाश क्यों है.
– रहमत (जुलाहा)
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