ज़र्रे आफ़ताब से लेकर मेरे लहू के कतरे सी सुर्ख़ शाम तक.
तू लौट कर आ जाना मेरे पास फ़लक के चाँद तक.
मैं रख लूँगा तुझे मेरी गोदी में बिठा कर मेरी बाहों में.
तू रुक जाना मेरे पास रोज़ ए क़यामत के अंजाम तक.
मैं हो जाऊँगा ताउम्र मसरूफ़ इस कदर तुझको सजाने में.
तू बस मुस्कुराते जाना मेरे दिल से निकले हर एक पैग़ाम तक.
– रहमत (जुलाहा)
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