ज़ार ज़ार रो भी लेते, थोड़ा सुधर भी जाते.
हम तुझसे दूर हो भी जाते तो किधर जाते.
ज़रा आँख लग भी जाती तो फिर होश में आते.
ग़र ठीक से सो भी जाते तो मर जाते.
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कोई नहीं आया साखी ग़म ए तन्हाई के साये में.
एक आवाज़ भी लगती तो हम ठहर जाते.
आईना भी जो दिखता तो पूछ ही लेता था तबीयत.
हम मुस्कुराते भी जाते थे और मुकर जाते.
परिंदों को ही सही मगर दर्द मालूम तो हुआ शायद.
गाँव या शहर, चले आते हम जिधर जाते.
सब रिश्तेदार और दोस्त रहते हैं जन्नत में रफ़त.
मालूम होगा ख़ुदा को कोई कैसे हमारे घर आते.
– रहमत (जुलाहा)
ज़ार ज़ार रो भी लेते, थोड़ा सुधर भी जाते.
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