तराज़ू-ए-इश्क़ है मेरी जान, लाज़िम है मेरा क़त्ल तो कीजिए.
बुलवा ही लीजिए नाचीज़ को, फिर मुकर जाइए, ठुकरा ही दीजिए.
चलो मिल कर हिसाब लगाएँ कि क्या क्या छूट गया.
सुब्ह-ए-सादिक़ सलाम भी ना किया, तुमसे मिलने आना भी छूट गया.
मेरी आँखें बेरंग भी रह गयीं, एक गुलाब भी मुझसे रूठ गया.
कितनी भी शिद्दत से चूम लूँ पेशानी, मुझसे नज़रें चुरा लीजिए.
करता रहा मुहब्बतें ज़ाया कि मेरे गुनाहों की सज़ा अब कुछ भी हो.
बिठला ही लीजिए अपने पास, कर लीजिए ग़ुस्सा, नीचे गिरा दीजिए. – रहमत (जुलाहा)
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