तू जबसे रूठा है, मेरे दिल का ज़र्रा ज़र्रा रेज़ा रेज़ा ख़ुद से ही नाराज़ है.
कहाँ लगा रहा हूँ नुक़्ते, कहाँ क़ाफ़िये, मेरा तलफ़्फ़ुज़ भी ख़राब है.
रहना है जहन्नुम में कि मिलती नहीं बख़्शिश इश्क़ के गुनहगारों को.
अब क्या मेरी ख़ामोशी, क्या मेरा लिबास, अब क्या सूरत-ए-सवाब है.
लिख रहा हूँ ये भी क़सीदा-ए-रफ़त रहमत.
कि तेरा चले जाना भी अज़ाब था, अब तेरा याद आना भी अज़ाब है.
– रहमत (जुलाहा)
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