rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

तेरी ज़ुल्फ़ों का क्या क़ुसूर, जो कभी इधर उड़े, कभी उधर गिरे.

तेरी ज़ुल्फ़ों का क्या क़ुसूर, जो कभी इधर उड़े, कभी उधर गिरे.
हम तेरी खिड़की से झाँके, कभी दरख़्त पर लटके, कभी नीचे गिरे.
कमबख़्त दिल बेईमान है या नीयत, कोई तो फ़िसले ही जा रहा है.
हम बड़ी मुश्किल से संभले, फिर दरख़्त पर चढ़े, फिर लटके, फिर नीचे गिरे.
– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)