rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

दो घड़ी बैठे किसी शाम ए गुफ़्तगू में तो वहाँ भी हैसियतदार आ जाए.

दो घड़ी बैठे किसी शाम ए गुफ़्तगू में तो वहाँ भी हैसियतदार आ जाए.
ऊँचे ऊँचे महलों से क्या लेना सलाहियत हो कर ख़्वार आ जाए.
ख़ुदा के माल को अपना समझ सब साहिब ए निसाब बन बैठे.
समेट कर मुहब्बत चल दिया मायूस हो कर घर खुद्दार आ जाए.
– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)