दो शे’र मेरी एक नज़्म से.
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ज़िक्र ए अर्बाब ए सुख़न में भी ख़ुदा ने तुझे रहमत रक्खा.
आ मिली वो बवंडर थमते ही और हम भी अपने घर गए.
लगे रहे सब दौलत ओ वसीयत जोड़ने में इस क़दर.
इज़्ज़त देख रफ़त कि हम भी लिख लिख कर जमा कर गए.
– रहमत (जुलाहा)
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