rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

किसी मेहमान के आने की राह देखता ही नहीं.

किसी मेहमान के आने की राह देखता ही नहीं.
दौड़ कर दरवाज़े तक जाता हूँ और कलेजा अधर कर लेता हूँ.
ज़माने की बे-रुख़ी ने छोड़ा तन्हा इस क़ैद ए सज़ा में.
छत पर परिंदों को देखता हूँ और सब्र कर लेता हूँ.

आती होगी सबको याद मेरी कि सबने मुझसे काम निकाला था.
ये सोच कर सबको याद करता हूँ और ख़ुद को ख़बर कर लेता हूँ.
मेरे ख़ून के कतरों से प्यास नहीं बुझेगी इस दुनिया की.
समंदर की बेबसी देखता हूँ तो किनारों की भी क़द्र कर लेता हूँ.

कोई भी समाँ जाने क्यूँ ख़ूबसूरत लगता नहीं अब.
ख्यालों में काग़ज़ की नाव बनाता हूँ और सफ़र कर लेता हूँ.
कोई मेरे हक़ कल के खाता आज खा जाए.
ख़ुदा से फिर माँगता हूँ और सब नज़र कर लेता हूँ.

मिलती नहीं अपनों की ख़्वाहिशें मुकम्मल पूरा हो कर.
ज़मीन-आसमान देखता हूँ और अपनी ज़रूरतें ज़ेर ओ ज़बर कर लेता हूँ.
बुलाते हैं महफ़िलों में मेरे यार अब मुझे तो जा नहीं पाता.
मेरे बुरे वक़्त में ख़ुद से बातें करता हूँ और बिस्तर को क़ब्र कर लेता हूँ.

धुँधली हो रही हैं सब यादें बचपन के घर-आँगन की.
ए फूफी-ज़ाद हमसफ़र तेरा चेहरा देखता हूँ और ख़ुश-हाल हश्र कर लेता हूँ.
ये कैसा दौर है कि सब आलिम हैं फिर भी आलिमों की आलिमों से नहीं बनती.
बस मुंह-जोरों को झूठा बताता हूँ और सलीक़ा-मंदों को अजर कर लेता हूँ.

छोटी मोटी आँधियों में अब मुझे भी मज़ा नहीं आता.
ग़ज़ब ए तूफ़ान का इंतज़ार करता हूँ और मेरे हाल से ग़दर कर लेता हूँ.
ले जाए हवा मेरी ये ग़ज़ल उड़ा कर चाहे जहाँ तक जुलाहा.
सबको इस ज़माने की हक़ीक़त बताता हूँ और महफ़ूज़ कोई तो दर कर लेता हूँ.
– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)