rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

इतना ही मालूम था इश्क़ में बर्बाद हो जाते हैं लेकिन.

इतना ही मालूम था इश्क़ में बर्बाद हो जाते हैं लेकिन.
जाने कब ख़ुद फ़ना हुए और आईनों में मुस्कुराने लगे.
मुहब्बत ना करे कोई बड़ी अजीब कैफ़ियत है.
ऐसे हुए उसके कि ख़ुद को याद आने लगे.
मुझे ही बताता रहता है कि तूने वफ़ा नहीं की.
उसे मेरी क़समें और वादे सब अफ़साने लगे.
तड़प उठता हूँ दीदार को कि वो ग़लत हो नहीं सकता.
सनम तुम मुझमें से निकल कर क्यूँ मुँह बनाने लगे.
कहते हैं कि वो जी ही नहीं पाए जो बीमार हुए.
हमें तो रहमत तिल तिल कर मरने में भी शायद ज़माने लगे.
– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)