rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

इतना ज़्यादा दर्द बनकर छलकते ही नहीं आँसू.

इतना ज़्यादा दर्द बनकर छलकते ही नहीं आँसू.
मेरी ज़िंदगी फ़रेबियों की महफ़िलों का जाम नहीं होती.
एक तो मेरा दिल साया बनकर तेरे नाम नहीं होता.
जो एक तू मेरे होटों पर रटा नाम नहीं होती.
तेरे हामी छुप छुप कर ख़ंजर ना घोंपते ग़र पीठ पर.
यूँ ही मौत मेरी हर चौराहा सरे आम नहीं होती.
शर्म से ग़र्क़ हो जाएँ मेरे दुश्मन मिट्टी में ज़मीन-दोज़ हो कर.
बदनाम होते हैं जिनके जवाई, उनकी बेटियाँ गुमनाम नहीं होती.
जो बदलते हैं लिबास ऊपर से अच्छा दिखने को हर रोज़.
उन पर झूठ और मक्कारी की रिवायत हराम नहीं होती.
सदा उनको भी है जो हवा के साथ बदलते रहे हैं तवाज़ुन अपना.
कितनी भी वफ़ा करे कोई, दौलत बिना यहाँ इज़्ज़त नेक-नाम नहीं होती.

– रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)