मुझे ये जो मेरे दिल का ‘अलहदा सा दर्द लगता है.
मेरे दुश्मनों की हसरतों का बहुत ज़रूरी फ़र्द लगता है.
ओढ़ कर ढिठाई से घूमते हैं वो बेच कर अपनी अपनी शर्म.
किसी के सुकून को थोड़ा नर्म किसी के खून को थोड़ा सर्द लगता है.
होता ही रहा ग़ैरों से मुख़ातिब हो कर मुझसे अजनबी.
मुझे तो तू भी मेरे हमदम बड़ा ही बेदर्द लगता है.
फिर भी कहता हूँ हर बात मुँह पर सबके सामने.
रहमत बस तू ही क्यूँ इस बस्ती में मुझे मर्द लगता है.
लेकर घूम रहा है इतने सारे दग़ा ओ फ़रेब कि अब सोने भी नहीं देते.
कोई ज़ख़्म अभी भी है हरा कोई ज़ख़्म ज़रा सा ज़र्द लगता है.
– रहमत (जुलाहा)