मौजों में एक नाव को डुबोने की आरज़ू बँट रही है.
कि एक क़तरे से समंदर की आबरू घट रही है.
अब तो किनारे भी बहुत दूर बह गए रहमत.
ज़िंदगी लश्कर ए दुश्मनाँ के रू-ब-रू कट रही है.
रिश्ते इतनी शिद्दत से निभाते रहें हैं अपने.
सबके साफ़ चेहरों से बरसों जमी धूल हट रही है.
छोड़ने को तो छोड़ देता मैं बेमतलब दुनिया.
फ़ालतू एक मैना खिड़की में मेरा नाम रट रही है.
हक़ीक़ी मिलें निशानियाँ तो सब्र नहीं खोते.
क़िस्मत बेवफ़ा है कि कौन जाने कल मुझसे पट रही है.
– रहमत (जुलाहा)
मौजों में एक नाव को डुबोने की आरज़ू बँट रही है.
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