थोड़े सपने लिए, आँखों में कितने अरमान लिए…
आई थी खोखले घर में जिसे उफ़ “ऊँचा घराना” आदतन कहते हैं.
कभी ख़ुशियाँ ठहरने ना दीं उसके आँगन में, जो दिखा पड़ौसी पड़ौसन कहते हैं.
एक कौने में पटक कर भी सुकून ना मिला अहल ए खानदान के रखवालों को.
ये भी हमारा वो भी हमारा, सताने को सब इरादतन कहते हैं.
थोड़े काले और गरीब रहे ना उसके बच्चे इसलिए किसी को भी ना भाए.
अब दुआओं का सिला मिला तो ग़ुबार ए हक़ को पागलपन कहते हैं.
देखो आज भी हिम्मत ना हारी वो और इंशाअल्लाह ना हारेगी.
तूफ़ानों में अब भी डट कर खड़ी है, मेरी माँ को अब भी सईदन कहते हैं.
– रहमत (जुलाहा)
थोड़े सपने लिए, आँखों में कितने अरमान लिए…
थ