rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

उठा कर हाथ मैंने मुश्त ए ख़ाक छोड़ दी.

उठा कर हाथ मैंने मुश्त ए ख़ाक छोड़ दी.
सुन कर दुआ उसने मेरी तक़दीर मोड़ दी.
अब यूँ चाक-चाक त’अल्लुक़ ए बज़्म ए याराँ ओ ज़माना.
बना कर ख़ुद का यार ख़ुदा ने मेरी सबसे यारी तोड़ दी.
– रहमत (जुलाहा)

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देखो दग़ा ए दोस्ती ने दुश्मनों को होड़ दी.
निबाहने को रिश्ता मेरे ‘ऐबों से यूँ मुकर गए.
हर दुश्वार मोड़ पर मेरी ही गर्दन मरोड़ दी.
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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)