ग़र्क़ सुबह हो रही है, तमाम शाम हो रही है.
ज़िंदगी ए “मतलब” महफ़िलों के नाम हो रही है.
ग़म ए दिल सुनाएँ भी तो किसको सुनाएँ जुलाहा.
वो ज़र्रा नवाज़ समझ रहे हैं ख़ुद को.
और ज़िंदगी ज़र्रा ए आम हो रही है.
– रहमत (जुलाहा)
ज़र्रा नवाज़ – किसी को कुछ देने वाला
ज़र्रा ए आम – छोटे से धूल के ज़र्रे बराबर
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