ग़ुस्से से मुँह फुलाए बैठा हूँ. ख़ुद को आग लगाए बैठा हूँ.
तुझे निकाल कर मेरे बगीचे से. सूखा हुआ मुरझाए बैठा हूँ.
ये मिसरा भी ना मिलेगा. या ये इसको ऐसे ठीक लिख दूँ.
ग़ायब दिमाग़ दिल सबक़ सज़ा. कलम से क्या क्या बिखर रहा है.
कर रहा हूँ ये बेमतलब शायरी. उजड़ा हुआ सब गँवाए बैठा हूँ.
चल रहे हैं दिल में तूफ़ान. डूब रही हैं सब कश्तियाँ.
उठ रहा है सीने में शोर. कड़क रही हैं बेरहम बिजलियाँ.
या ख़ुदा ये मैंने क्या किया. मैं ख़ुद ही मेरा घर जलाए बैठा हूँ. – रहमत (जुलाहा)
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