बन के पत्थर लेटे से रहो. जो ना हो मुहब्बत तो फिर जीने में बचा क्या है.
फीकी चादर में लपेटे से रहो. जो ना हो ज़िंदगी तो फिर रंगों में बता क्या है.
छूट जाए महबूब का आना जाना. ना हों रंग तो फिर आँखों से पीने में मज़ा क्या है.
अपनी बाहों में समेटे से रहो. ना कर सको ख़ुद से बातें तो फिर मुहब्बत में रखा क्या है.
बन के पत्थर लेटे से रहो. जो ना हो मुहब्बत तो फिर जीने में बचा क्या है.
– रहमत (जुलाहा)
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