rehmat.re रहमत (जुलाहा) की शायरी

ये जहाँ क्या है मगर, क्या जनाब आख़िर है.

ये जहाँ क्या है मगर, क्या जनाब आख़िर है.
हर ख़ुशी क्या है मगर, एक अज़ाब आख़िर है.
दिल लगाया है किसी से तो ये जान लीजिए.
हर मोहब्बत की कहानी, इज़्तराब आख़िर है.
जो भी पाया है वो खोना भी मुक़द्दर में है.
हर मिलन का ये नतीजा, ख़राब आख़िर है.
हम समझते थे कि मंज़िल कोई तो आसाँ होगी.
हर क़दम पर ये मगर, पेच ओ ताब आख़िर है.
आप कहते हैं कि दुनिया में वफ़ा ढूँढ रहे हैं हम.
बेवफ़ाई का ये क़िस्सा, बे-हिसाब आख़िर है.
रात भर नींद नहीं आती है आँखों में मगर.
सुबह होते ही ये सारा, ख़्वाब आख़िर है.
कोई पूछे तो कहें क्या है ये दुनिया ए फ़ानी.
ज़िंदगी एक सवाल ओ जवाब आख़िर है.
हम तो समझे थे कि मंज़िल है कोई राह में.
हर सफ़र बस ये मसीर ए शबाब आख़िर है.
कितनी मेहनत से बनाया था ये आशियाँ अपना.
आज देखा तो ये सब एक नक़्श ए आब आख़िर है. – रहमत (जुलाहा)

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Rehmat Ullah - रहमत (जुलाहा)